गुरुवार, 14 जनवरी 2010

एक सिम्‍फनी है

अकेली गहराती रात में एक खिडकी के पीछे एक अनाम लैम्‍प जल रहा है। जैसे इस लैम्‍प के जलने से ही यह रात इतनी गहरी है। लगता है कि मैं जगा हुआ हूं, अंधेरे में अपनी कल्‍पनाओं में डूबा, बस इसी वजह से ही उधर, वहां रोशनी है।

शायद हर चीज इसलिए जीवित है क्‍योंकि कुछ और भी है जो साथ में जीवित है।
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कोहरा या धुआं।
क्‍या यह धरती से उठ रहा था या आकाश से गिर रहा था। जैसे यह वास्‍तविकता नहीं है, अपनी आंखों की ही कोई पीड़ा है। जैसे कुछ ऐसा घटित होनेवाला है, जिसे हर चीज में अनुभव किया जा सकता है, उसी घटना की आशंका में दृश्‍यमान संसार ने अपने आसपास कोई परदा खींच लिया है।

दरअसल, आंखों के लिए यह कोहरा शीतल है लेकिन छूने पर ऊष्‍ण, जैसे दृष्टि और स्‍पर्श किसी एक ही अनुभव को जानने के लिए नितांत दो अलग तरीके हैं।
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उदास प्रसन्‍नता के साथ कभी-कभी मैं सोचता हूं कि मेरे ये वाक्‍य जिन्‍हें मैं लिखता हूं, भविष्‍य में किसी एक दिन, जिसका मैं हिस्‍सेदार भी नहीं होऊंगा, प्रंशसा के साथ पढे जाएंगे, आखिर मैं उन लोगों को पा सकूंगा जो मुझे 'समझ' सकेंगे, मेरे अपने लोग, एक मेरा वास्‍तविक परिवार जो अभी पैदा होना है और जो मुझे प्‍यार करेगा। लेकिन उस परिवार में मैं पैदा नहीं होऊंगा बल्कि मैं तो मर चुका होऊंगा। मैं किसी चौराहे की प्रतिमा की तरह रहकर समझा जाऊंगा, और इस तरह मिला कोई भी प्रेम, उस प्रेम के अभाव की भरपाई नहीं कर पाएगा जिसका अनुभव मुझे अपने जीवनकाल में होता रहा।
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मेरी आत्‍मा एक अजाना आर्केस्‍ट्रा है। मैं नहीं जानता कि कौन से वाद्ययंत्र, कौन सी सारंगी और वीणा के तार, नगाड़े और ढपलियां मैं अपने भीतर बजाता हूं या उनको झंकृत करता हूं।
कुल मिलाकर जो मैं सुनता हूं वह एक सिम्‍फनी है।
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फर्नेन्‍दो पेसोआ की चर्चित डायरी और मेरी प्रिय किताब 'द बुक ऑफ डिस्‍क्‍वाइट' की अनेक पंक्तियां ऐसी हैं जो बार-बार पढता हूं। अपने नाम के अनुरूप ही यह किताब व्‍याकुल बनाने में सक्षम है। एक सर्जनात्‍मक व्‍याकुलता इसमें व्‍याप्‍त है। उन सैंकडों पंक्तियों में से कुछ यहां लिख दी हैं।
यों ही। टूटे-फूटे अनुवाद में। नए साल की शुभकामनाओं के साथ।

7 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

achha likha

Udan Tashtari ने कहा…

ओह!! डूब गये..और भी लाईये जब कभी वक्त निकले..मन डूबने का करे फिर ऐसी ही सिम्फनी की डूब में...

Vivek Ranjan Shrivastava ने कहा…

यह गद्य भी काव्यमय आनन्द दे रहा है ... अच्छा लगा

डॉ .अनुराग ने कहा…

यक़ीनन ....किसी ख्याल को रोक कर रखने की बानगी है

pallav ने कहा…

Badhiya.

गौतम राजऋषि ने कहा…

कितनी ही अपनी-सी बातें...आह!

मेरी आत्‍मा एक अजाना आर्केस्‍ट्रा हो जैसे सचमुच...

सोनू ने कहा…

कुमारजी, शरद चंद्रा ने फरनांदो पेसोआ की इस किताब का मूल फ्रेंच से अनुवाद किया है, जिसके बारे में शायद आपको पता नहीं है।

एक बेचैन का रोज़नामचा