रविवार, 26 जून 2011

जबकि जीवन इसकी इजाज़त नहीं देता था

एक नयी पत्रिका 'अक्षर' में 2008 में लिखी डायरी के हिस्‍से प्रकाशित हैं।
उसी में से चयनित कुछ टुकड़े ।


2008 के दिनों में रहते हुए
कुछ शब्द

1
कई बार कोई तुम्हारी सहायता नहीं कर पाता। न स्मृति, न भविष्य की कल्पना और न ही खिड़की से दिखता दृश्य।
न बारिश और न ही तारों भरी रात।

न कविता, न कोई मनुष्य और न ही कामोद्दीपन।
संगीत से तुम कुछ आशा करते हो लेकिन थोड़ी देर में वह भी व्यर्थ हो जाता है।

शायद इसी स्थिति को सच्ची असहायता कहा जा सकता है।

2
मैं एक शब्द भूला हुआ था।

मुझे याद नहीं आता था कि वह कौन सा शब्द था। वह रोजमर्रा का ही कोई शब्द था।

आज सोने जाते समय, रात एक बजे वह अचानक कौंधा- ‘विषाद’।
हाँ, यही वह शब्द था जिसे मैं, अचरज है, कि किसी अविश्वसनीय बात की तरह, न जाने क्यों कुछ समय से भूला हुआ था। जबकि जीवन इसकी इजाज़त नहीं देता था।

3
मुश्किल और आशा का गहरा संबंध है।

जब आप कठिनाई या संकट में नहीं होते तो आशा की कोई जरूरत नहीं पड़ती।
जैसे ही कोई मुश्किल, विपदा, अवसाद या असंतोष पैदा होता है, आशा अपना काम करना शुरू कर देती है।

4

अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने, जो बीमारी की वजह से नोबेल पुरस्कार लेने स्वयं उपस्थित न हो सके थे, अपने संक्षिप्त धन्यवाद भाषण में लिख भेजा थाः ‘कोई भी लेखक जो ऐसे अनेक महान लेखकों को जानता हो, जिन्हें यह पुरस्कार नहीं मिल सका, इस पुरस्कार को केवल दीनता के साथ ही स्वीकार कर सकता है। ऐसे लेखकों की सूची देने की आवश्यकता नहीं है। यहाँ प्रत्येक आदमी अपने ज्ञान और अंतर्विवेक से अपनी सूची बना सकता है।’

यह आत्म परीक्षण, लघुता भाव और विनम्रता हर भाषा के पुरस्कार प्राप्तकर्ताओं में देखी जाना चाहिए क्योंकि प्रत्येक समय, हर भाषा के महत्वपूर्ण पुरस्कारों में, ऐसे श्रेष्ठ लेखकों की सूची किसी कोने में पड़ी हो सकती है, जिन्हें वे पुरस्कार कबके मिल जाने चाहिए थे। लेकिन हिंदी में हम देख सकते हैं कि जो पुरस्कार लेते हैं उनमें ढीठता और अहमन्यता ही कहीं अधिक प्रकट होती है।
दीनता की जगह गहरा संतोष।

5
क्या संसार में कोई ऐसा भी है जो रेल्वे प्लेटफॉर्म पर खड़ा हो और छूटती हुई रेल जिसे उदास न करती हो? प्लेटफॉर्म के ठीक बाहर खड़ा पेड़, जो उसे फिर कुछ याद न दिलाता हो? क्या? क्या??

दिमाग पर जोर डालकर कुछ सोचना न पड़ता हो।

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सोमवार, 20 जून 2011

प्रतीक्षा

करीब एक दशक पहले अपने मित्र के लिए लिखी यह कविता अभी तक अप्रकाशित ही है।
आज अचानक य‍ह कागजों में मिली तो यहां प्रकाशित कर रहा हूं।

प्रतीक्षा
(एस.एन. के लिये)


दूर तैरता दिखता है बादल का टुकड़ा
और तुम जो यहाँ इतने करीब हो हृदय के
एक इस याद ने मुझे बना दिया है ताकतवर

कल भी मेरे बुखार में चला आया वह पेड़
जो तुम्हारे साथ रहने से ही बरगद था
अब तुम्हें देखे इतने बरस हुए कि उम्मीद होती है
मेरे पास पिछले सालों की हजार बातें हैं
जो सिर्फ तुम्हें बतायी जा सकती हैं
जिन्हें समझ सकते हो सिर्फ तुम ही
इस बीच मैंने कई चीजों को सहन किया
और चुप रहा कि एक दिन तुम मिलोगे

पिछली रात आकाश में अनुपस्थित
चंद्रमा ने जैसे मुझे समझायाः
‘कृष्ण पक्ष में हमें इंतजार करना चाहिए’
धीरे-धीरे पार हो रहा है जीवन का पठार
पीछे मुड़कर देखने पर केवल तुम हो
जो दिखाई देते हो मित्र की तरह रोशन
और चुपचाप करते हो मेरी प्रतीक्षा

मुझे मालूम है एक दिन अचानक
मैं पहुँच ही जाऊँगा तुम्हारे पास
या किसी रात खटखटाये जाने पर
जब दरवाजा खोलूँगा तो तुम ही दिखोगे सामने
वैसे ही सिमटे हुए और व्याकुल
वैसे ही अपरम्पार।
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