मंगलवार, 18 अक्तूबर 2011

यात्रा के अंत में मितली

रस्किन बाण्ड, जैसा कि मैंने अपने अधिसंख्य लेखक मित्रों से बात करके जाना कि हिन्दी में बहुत प्रतिष्ठित और श्रेष्ठ, अंग्रेजी में लिखनेवाले, भारतीय लेखक की तरह स्वीकार नहीं किए जाते हैं। एक आदरणीय, लोकप्रिय, चर्चित, फ्रीलांसर और औसतन पठनीय लेखक की तरह ही हिन्दी में उनकी सहज स्वीकृति है।

रस्किन के यहॉं संभवतः कहानी में कला, यथार्थ, समकालीनता और गल्प में नए अन्वेषण का वैभव अनुपलब्ध है। खास तरह के परिवेश और सीमित परिधि के विषयों, खासकर आत्मकथात्मकता के साथ लिखी गईं उनकी ज्यादातर कहानियॉं इसका प्रमाण हो सकती हैं। लेकिन मुझे रस्किन की साहित्‍य अकादेमी द्वारा पुरस्‍कृत किताब ‘देहरा में आज भी उगते हैं हमारे पेड़’ कुछ कारणों से पसंद है।

पहला तो यही कि वरिष्ठ कवि सौमित्र मोहन ने इसका प्रशंसनीय अनुवाद किया है। उन्होंने जैसे रस्किन के अंग्रेजी में लिखे को ‘हिंदी में ही लिखित’ बना दिया है। इससे जो गद्य पैदा हुआ है, वह आकर्षक है, हृदय में बस जानेवाला है। दूसरी विशेषता यह है कि रस्किन अपनी इन कहानियों में अनेक मार्मिक वाक्य लिख सके हैं। एक ऐसा गद्य जो कहानी या उपन्यास या संस्मरणात्मक लेखन वगैरह की कोटि से ऊपर होता है और अपने अनूठेपन और औचकपन के कारण उस पूरी विधा को ही सहारा देकर किसी अप्रतिम जगह तक ले जाता है। बावजूद शेष लचर काया के।

एक बात और, इन कहानियों के आरंभिक और अंत के वाक्य प्रायः ऐसे हैं जो सुंदर, संवेदनशील और हार्दिक गद्य से ही संभव होते है। कई बार एक सूचनात्मक वाक्य भी निजी चमक रखता है। कुछ नमूने यहॉं पेश हैं, यह याद करते हुए कि रस्किन अपनी सीमाओं में ही सही, अपने लघु सीमांत में ही सही, मेरे जैसे पाठकों के लिए आकर्षक और पठनीय हैं। हम कई बार एक अच्छे वाक्य के लिए, अच्छे गद्य और उसके अप्रत्याशित विन्यास के लिए उन यात्राओं पर भी चले जाते हैं जो वैसे कठिन और सम्मोहक नहीं दिखती हैं।
बहरहाल, जायजे के लिए इस पुस्तक से उनकी कहानियों के पहले या अंतिम कुछ वाक्य-

‘किसी यात्रा के अन्त में महसूस होनेवाली हल्की सी मितली का संबंध शायद उस पहली घर वापसी से हो, जब मैं अपने पिता की मृत्यु के बाद लौटा था।’

‘मेपलवुड को छोड़े हुए मुझे बहुत साल नहीं हुए हैं लेकिन इस खबर से मुझे कतई हैरानी नहीं होगी कि वह कॉटेज अब नहीं रहा।’ ‘एक संघर्षशील लेखक के लिए यह पुराना कॉटेज बहुत उदार था।’

‘जावा की रानी में अभी फूल आए ही थे कि जकार्ता पर पहले बम गिरे और गलियों में फैले मलबे पर चटख गुलाबी फूल बिखरे दिखाई देने लगे।’

‘आप जहाँ भी जाते हैं या जो कुछ भी करते हैं, ज्यादातर वक्त आपकी जिन्दगी तो आपके दिमाग में ही बीत रही होती है। उस छोटे कमरे से बच पाना मुमकिन नहीं!’

‘मैंने जब देहरा छोड़ा था, तब उन्होंने और रामू ने जरूर यही सोचा होगा कि पक्षियों की तरह मैं भी दोबारा लौटूँगा।’

‘आजादी, मुझे अब लगने लगा था, वह चीज है, जिसके लिए लगातार आग्रह करते रहना होता है।’

‘मैं पैदल चलते हुए अपने होटल पहुँचा। मुझे इसका पूर्वबोध हो चला था कि मैं अपनी माँ से आखिरी बार मिल रहा हूँ।’

‘पेड़ भी तो हार चुके हैं, हाँ जब वे नीचे गिरते हैं तो गरिमा के साथ गिरते हैं। चिन्ता न करें। मनुष्य तो आते जाते रहते हैं, पहाड़ स्थायी हैं।’
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1 टिप्पणी:

शरद कोकास ने कहा…

हाँ .. रस्किन का यह गद्य सबसे अलग तो है ।