शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

जहॉं हम मानते हैं कि हम ही सही हैं


इधर कुछ दिनों से येहूदा आमीखाई की यह कविता याद आती रही।
इसका भावानुवाद सह पुनर्लेखन जैसा कुछ किया है।
शायद इसका कुछ प्रासंगिक अर्थ भी निकले।


जहाँ हम मानते हैं कि हम ही सही हैं

जहाँ हम मानते हैं कि हम ही सही हैं
उस जगह फिर कभी
वसंत में भी फूल नहीं खिलेंगे

जहाँ सिर्फ हम सही होते हैं
वह जगह फिर बाड़े की जमीन की तरह
कठोर और खूँदी हुई हो जाती है

ये संशय और प्रेम ही होते हैं
जो दुनिया को उसी तरह खोदते रहते हैं
जैसे कोई छछूंदर या जुताई के लिए हल
और सुनाई देती है फिर एक फुसफुसाहट उसी जगह से
जहाँ कभी हुआ करता था एक उजड़ा हुआ मकान।
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9 टिप्‍पणियां:

Brajesh kanungo ने कहा…

बहुत सुन्दर और अर्थपूर्ण कविता को रूपांतरित कर हम तक पहुँचाने के लिए धन्यवाद और बधाई भी।

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

कितनी सुंदर और कितनी सही बात है!

pratyuttar ने कहा…

jarooree kavita.achchha anuvad.badhai.

pratyuttar ने कहा…

bahut achchhee kavita aur utana hee sundar anuvad.badhai

रतन चंद 'रत्नेश' ने कहा…

पहली तीन पंक्तियाँ कभी भुलाये नहीं भूलेंगी|....प्रेरक कविता

रतन चंद 'रत्नेश' ने कहा…

पहली तीन पंक्तियाँ भुलाये नहीं भूलेंगी| ... प्रेरक कविता...

रश्मि प्रभा... ने कहा…

कोई भी व्यक्ति , घटना , .... पूरी तरह तरह से सही नहीं होता , हो ही नहीं सकता - क्योंकि कहने सुनने समझने और लेने में अपनी सोच भी शामिल होती है

Meenakshi ने कहा…

BAHUT SUNDER KAVITA HUM TAK PAHUNCHANE KE LIYE AABHAAR AMBUJ JI....MEENAKSHI JIJIVISHA

















अजेय ने कहा…


प्रेरक .


जहाँ हम मानते हैं कि हम ही सही हैं
उस जगह शब्द महज़ शोर हो जाते हैं
और लोग फक़त भीड़ .
और हम
उस का हिस्सा भी नहीं बन पाते