शनिवार, 29 दिसंबर 2012

फिर


फिर


यहॉं बैरीकेड्स लगे हैं

इससे आगे जाना लाठीचार्ज के लिए आमंत्रण है


प्रधानमंत्री से आप मिल नहीं सकते

आपको बता दिया गया है कि ज्ञापन

उधर चौकीदार को भी दिया जा सकता है

 

हर चीज की एक मर्यादा है

यदि आपको लगता है कि आप ज्‍यादा योग्‍य हैं

तो फिर सांसद का चुनाव क्‍यों नहीं लड़ते हैं

वैसे भी ऑंसूगैस ही पहले छोड़ी जाएगी

 

हम कहना चाहते हैं कि हम पर अत्‍याचार हुआ है

हमें नहीं मिला है न्‍याय

और हमें खदेड़ दिया गया है हर जगह से

 

ठीक है। हम भी उतने ही दुखी हैं

हमारा भी परिवार है, लड़के हैं, लड़कियॉं हैं

लेकिन रैली के लिए जगह नहीं है सड़कों पर

अनशन के लिए बसाया गया है बीस मील दूर

एक उजड़ा गॉंव

 

फिर। फिर।

क्‍या करें हम फिर।

 

दिमाग फिर गया है तुम्‍हारा

अब गोली चलाई जाएगी।

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गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

अँधेरे में से अपने हक़ की रोशनी

'कविता की स्मृति' शीर्षक से एक स्‍तंभ कुछ अंकों में 'वसुधा' में कमला प्रसाद जी ने लिखवाया। उस क्रम में देवताले जी की एक कविता के संदर्भ में करीब दो बरस पहले यह नोट प्रकाशित हुआ था, जो अब उन्‍हें साहित्‍य अकादेमी पुरस्‍कार दिए जाने के प्रसंग में यहॉं भी दे रहा हूँ। शुरू में वह भूमिका है जो स्‍तंभ शुरू करते समय लिखी गई थी। नोट के अंत में संदर्भित कविता है।

कुछ कविताएं स्मृति में अटक जाती हैं। उनमें से भी बहुत थोड़ी कविताएं आपके साथ रहने लगती हैं। साहित्य के दृश्य में प्रायः कोई उनकी याद नहीं दिलाता।उन्हें आप भी याद नहीं रखना चाहते थे लेकिन वे आपके संग हो जाती हैं। जगमगाती। कभी अंधेरे में गुमसुम। अपने संगीत और संगति में मग्न। अपनी कोमलता और पत्थरपन के साथ। सपनों और इच्छाओं की तरह। आपके तहखाने में भी वे रह लेती हैं। आपकी पंसद और शास्त्रीय समझ से परे वे आपका पीछा करती हैं। अनाक्रामक और शांत। उनका विपय, विन्यास, दुस्साहस, उत्कंठित सरलता, गुस्सा, धीरज, औचकपन या अकबकापन आपको कहीं भी, किसी भी जगह, किसी भी समय में अचानक घेर लेता है। वे आपको अपनी जद में लिए रहती हैं।
हालांकि, विस्मृति बहुत अधिक भेद नहीं करती है। वह अच्छी औ
र कम अच्छी चीजों के साथ एक सा व्यवहार कर सकती है। लेकिन स्मृति भी अपना काम करती है। चुपचाप। यह प्रक्रिया मारक है और जीवनदायी भी।
और इसी प्रक्रिया में कुछ कविताएं आपके भीतर, अपनी स्थायी नागरिकता प्राप्त कर लेती हैं। इसी में एक लेखक का, साहित्यिक का, पाठक का अकथनीय जीवन बनता जाता है।


अँधेरे में से अपने हक़ की रोशनी

करीब 15 साल पहले चंद्रकांत देवताले दैनिक भास्कर में स्तंभ लिखते थे और उसमें उन्होंने एक बार अपनी कविता प्रकाशित करायी, जो बाद में उनके कविता संग्रह ‘उजाड़ में संग्रहालय’ में संकलित हुई है। उस स्तंभ में पहली बार पढ़ी इस कविता की स्मृति जब-तब पीछा करती है।

देवताले जी की कुल कविता जीवन के अनंत प्रसंगों से बनती है और आसपास की, रोजमर्रा की छोटी-बड़ी घटनाएँ उनके काव्य विषय हैं। उनके पास अपेक्षाकृत लंबी कविताओं की सहज उपस्थिति है। शब्द स्फीति भी जैसे वहॉं काव्य उपकरण बन जाती है और उनके शिल्प का, कवि की नाराजगी, असंतोष, व्यग्रता और सर्जनात्मक बड़बड़ाहट का हिस्सा होती है। एक कवि जो अकथनीय को भी कह देना चाहता है, इसके अप्रतिम उदाहरण चंद्रकांत देवताले की कविता में देखे जा सकते हैं। परंपरागत आलोचकीय समझ एवं औजार यहॉं अपर्याप्त और कमजोर सिद्ध हो सकते हैं।

पुस्तक मेले के प्रसंग से किताबों, पुस्तकालयों, पाठकों और लेखकों के साथ बदलते समाज की प्राथमिकताओं तथा विडम्बनाओं को समेटती इस कविता का फलक व्यापक है और लगभग हर पैराग्राफ में यह अपने को नए आयामों में विस्तृत करती चली जाती है, बिना अपने केन्द्रीय विषय को विस्मृत किए।

पहली दो पंक्तियाँ ही कविता का प्रसंग और वातावरण तैयार कर देती हैं और फिर आवेग से कविता आगे बढ़ती चली जाती है। वे शब्दों और किताबों की महत्ता को, मुश्किलों को नए सिरे से काव्यात्मकता में आविष्कृत करते हैं। इस उपभोक्तावादी, प्रदर्शनकारी, महॅंगे जमाने में इन किताबों तक पहुँचना आसान नहीं रहा और इसलिए  ‘मजबूत और प्राणलेवा बन्द दरवाजे हैं/ अॅंधेरे के जैसे, वैसे ही रोशनी के भी’। किताबें, जो ज्ञान, मुक्ति और इसलिए रोशनी का घर हैं। जो अनेक तालों की चाबियॉं हैं।

पुस्तकालयों की दुर्दशा और वहाँ का विजुअल दृष्टव्य है, जिनकी जगह या जिनके आसपास अब शराबघर, जुए के अड्डे, जूतो-मोजों की दुकानें हैं या फिर इस कदर ठसाठस भरी पार्किंग है कि किताबों तक पहुँचना नामुमकिन है। लेकिन किताबें हैं कि इस युग में भी छपती ही चली जा रही हैं, अपने ताम-झाम और उत्तर आधुनिकता के साथ कदमताल करतीं। अंतर्विरोध और हतभाग्य यही कि हमारे जैसे महादेश के अधिसंख्य लोग आजादी के अर्धशतक के बावजूद इन पुस्तक मेलों में नहीं जा सकते हैं और फैले हुए विराट अॅंधेरे में से अपने हक की रोशनी नहीं उठा सकते। चाहे फिर वह कफन या गोदान के नाम से हो या किसी अन्य संज्ञा से उसे पुकारें। यह फ्रेक्चर भीतरघात से हुआ है।

इन्हीं के बीच एक अधिक सक्षम, लोकप्रिय खण्ड है जो सफलता और धन कमाने के उपायों के लिए किताबें रचता है, दुनिया को जीतने के रहस्य, अंग्रेजी जानने के तरीके बताता है और फिर साज-सज्जा से लेकर मोक्ष, व्यंजन पकाने की विधियॉं और बागवानी तक की किताबों की श्रंखला है, जिसमें बच्चों की किताबें भी हैं लेकिन वे चमक-दमक और रईसी का जीवन जी रहे मध्यवर्ग या उच्चवर्ग के बच्चों को ही नसीब हो सकती हैं। वंचित बच्चों की संख्या विशाल है। यह कविता बारीक तरीके से सबल और निर्बल, सक्षम और अक्षम, सुविधासंपन्न और वंचितों के बीच में लगातार एक तनाव रचती है। यह दो किनारों को मिलाती नहीं है, लगातार याद दिलाती है कि दो सिरे हैं और इनका होना हमारे समय का एक अविस्मरणीय लक्षण है। ये दो सिरे अनेक रूपों में दिखते हैं। औद्योगिक मेला और पुस्तक मेला, ताकतवर आवाज और कमजोर का रोना, अॅंधेरा और रोशनी, हाथी और कनखजूरे, इतिहास और भविष्य, पुच्छलतारा और आत्मा, किताबें जो तैरा सकती हैं दुनिया को लेकिन खुद डूब रही हैं, साक्षरता अभियान और निरक्षरता, लोकप्रिय और साहित्यिक पुस्तकें जैसे अनेक विलोम-संदर्भों से यह कविता अपना वितान, अपना आग्रह संभव करती है।

हमारे करीब फैली पुस्तकों-पाठकों की समस्या के रैखिक से दिखते यथार्थ को यह कविता तमाम जटिलताओं और करुण हास्यास्पदता के बीच रखकर जाँचती परखती है। कविता अपने अंत में कवि, कथाकार, विचारक, लेखकों, प्रकाशकों को भी सवालों के घेरे में लेती है और इधर के एक सामान्य लेकिन बार-बार उठाये जानेवाले प्रश्न को रखती हैः ‘इन्हें जो लिखेंगे क्या वे ही पढ़ेंगे? कहेंगे जो वे ही सुनेंगे?’ और वे तमाम लोग जो फिर पीछे छूट गए हैं, क्या वे कभी जान पाएँगे कि उनका भी कोई घर भाषा के भीतर हो सकता है? इस कविता का विशिष्ट पहलू यह भी है कि यह सीधे-सीधे अपने वर्तमान से, समकालीनता से टकराती है और अपनी परिधि को संकुचित नहीं रहने देती।
एक कवि अपने समय-समाज के शब्दों और किताबों के साथ होनेवाली दुर्घटना को लेकर, अन्यथा उसकी उपलब्धियों पर विचार करते हुए कितना बेचैन और सजग हो सकता है, यह कविता इसी का विमर्श तैयार करती है। विचार करें तो यह विमर्श अभी भी प्रासंगिक बना हुआ है।


करिश्मे भी दिखा सकती हैं अब किताबें



चन्द्रकांत देवताले
 
औद्योगिक मेले के बाद अब यह पुस्तकों का
मेला लगा है अपने महानगर में,
और भीड़ टूटेगी ही किताबों पर
जबकि रो रहे हैं बरसों से हम, कि नहीं रहे
किताबों को चाहने वाले, कि नहीं बची अब
सम्मानित जगह दिवंगत आत्माओं के लिए घरों में
कहते हैं छूंछे शब्दों के विकट शोर-शराबे में
हाशिए पर चली गई है आवाज़ छपे शब्दों की
यह भी कहते हैं कि संकट में फँसे समाज और जीवन की
छिन्न-भिन्नताओं के दौर में ही
उपजती है ताकतवर आवाज़ जो मथाती है
धरती की पीड़ा के साथ, पर इन दिनों सुनाई नहीं देती
मज़बूत और प्राणलेवा बन्द दरवाज़े हैं
अँधेरे के जैसे, वैसे ही रोशनी के भी
इन पर मस्तकों के धक्के मारते थे मदमस्त हाथी कभी
अब किताबें हाथी बनने से तो रहीं
पर बन सकती हैं चाबियाँ-
कनखजूरे निकल कर
इनमें से हलकान कर सकते हैं मस्तिष्कों को
फूट सकती है पानी की धारा इनमें से
और हाँ! आग भी निकल सकती है
इन्हीं में है अपनी पुरानी बन्द दीवार घड़ी
बमुश्किल साँस लेता हुआ
मनुष्यों का इकट्ठा चेहरा
हमारे युद्ध और छूटे हुए असबाब
हवाओं के किटकिटाते दाँतों में फँसे हमारे सपने
रोज़मर्रा के जीवन में धड़कती हमारी अनन्तता
और उन रास्तों का समूचा इतिहास
जिनसे गुज़रते यहाँ तक आए
और हज़ारों सूरज की रोशनी के नीचे
धुन्ध और धुएँ के बिछे हुए वे रास्ते भी
भविष्य जिनकी बाट जोहता है
पता नहीं अब कौन सा पुच्छलतारा
आकाश से गुजरा
कि विचारों के गर्भ-गृह के सबसे निकट होने की
ज़रूरत थी जब
आदमी पेट और देह से सट गया
और अपनी प्रतिभा के चाकुओं से जख्मी करने लगा
अपनी ही आत्मा
जो पवित्र स्थानों को मंडियों में बदल सकते हैं
उनके सामने पुस्तकों-पुस्तकालयों की क्या बिसात
जहाँ पुस्तकालय थे कभी, वहाँ अब शराबघर हैं
जुए के अड्डे, जूतों-मोजों की दुकानें हैं
और जहाँ बचे हैं पुस्तकालय वहाँ बाहर
पार्किंग ठसाठस वाहनों की
जिनसे होकर किताबों तक पहुँचना लगभग असम्भव है
भीतर सिर्फ आभास है पुस्तकालय होने का
और किताबें डूब रही हैं और जाहिर है कह नहीं सकतीं
'बचाओ! बचाओ-दुनियावालों तुम्हारे
पाँव के नीचे की धरती और चट्टान खिसक रही है।‘
अपने उत्तर आधुनिक ठाटबाट के साथ
धड़ल्ले से छपती हैं फिर भी किताबें
सजी-धजी बिकती हैं थोक बाजार में गोदामों के लिए
करिश्मे भी दिखा सकती हैं अब किताबें
सर्कस का-सा भ्रम पैदा करते खड़ी हो सकती हैं
उनमें से निकल सकते हैं जेटयान, गगनचुम्बी टॉवर
कारखाने, खेल के मैदान, बगीचे, बाघ-चीते
और लकड़बग्घा हायना कहते हैं जिसे
पुस्तकें ऐसी भी जिनसे तकलीफ न हो आँखों को
खुद-ब-खुद बोलने लग जाए
चाहो जब तक सुनते रहो
दबा दो फिर बटन-अँधेरा और आवाज़ बन्द हो जाए
जिन्हें अपनी पचास साला आज़ादी ने
नहीं छुआ अभी तक भी इतना
कि वे घुस सकें पुस्तक-मेले में
उठा लें अपने हक की रोशनी 'कफन’, 'गोदान’
या मुक्तिबोध के 'अँधेरे में’ से
और वे भी जो फँसे हैं
साक्षरता-अभियान के आँकड़ों की
भूल-भुलैया में नहीं जानते
कि करोड़ों के नसीब के भक्कास अँधेरे
और गूँगेपन के खिलाफ कितना ताकतवर गुस्सा
छिपा है किताबों के शब्दों में
और दूसरे घटिया तमाशों के लिए हज़ारों के
टिकट बेचने-खरीदने वालों की जि़न्दगी में
चमकते ब्रांडों के बीच गर होती जगह थोड़ी-सी
सही किताबों के लिए
तो वे खुद देख लेते छलनाओं की भीतरघात से
हुआ फ्रेक्चर
घटिया गिरहकट किताबों के हमले से
जख्मी छायाओं की चीख सुन लेते
अपने फायदे या जीवन की चिन्ता की
जिस सीढ़ी पर होंगे जो
खरीदेंगे-ढूंढ़ेंगे वैसी ही रसद अपने लिए
सफलता और धन कमाने
और दुनिया को जीतने के रहस्यों के बाद
अंग्रेज़ी सीखने और इसका ज्ञान बढ़ाने वाली
किताबों पर टूटेगी भीड़
इन्हीं पुस्तकों में छिपा होगा कहीं न कहीं
अपनी आबादी और मातृभाषा को
विस्मृत करने का अदृश्य पाठ
फिर प्रतियोगी परीक्षाएँ, साज-सज्जा
स्वास्थ्य, सुन्दरता, सैक्स, व्यंजन पकाने की
विधियाँ, कम्प्यूटर से राष्ट्रोत्थान
धार्मिक खुराकों से मोक्ष और फूहड़ मनोरंजन
टाइम पास-जैसी किताबों के बाद भी
बचेगी लम्बी फेहरिस्त जो होगी
क्रिकेट, खेलकूद, बागवानी, बोनसाई,
अदरक, प्याज, लहसुन, नीम इत्यादि-इत्यादि के
बारे में रहस्यों को खोलने वाली
बीच में होगा आकर्षक बगीचा बच्चों के लिए
चमकती, बजती, महकती और बोलती पुस्तकों का
मुट्ठी भर बच्चे ही चुन पाएँगे जिसमें से
और जो बाहर रह जाएँगे असंख्य
उनके लिए सिसकती पड़ी रहेंगी
चरित्र-निर्माण की पोथियाँ
और अन्तिम सीढ़ी पर प्रतीक्षा करते रहेंगे
दिवंगत-जीवित कवि, कथाकार, विचारक
वहाँ भी होंगे चाहे संख्या में बहुत कम
जिनके लिए सिर्फ संघर्ष है आज का सत्य
इन्हें जो लिखेंगे क्या वे ही पढ़ेंगे?
कहेंगे जो वे ही सुनेंगे?
और जिनके लिए जीवन के महासागर से
भरी गई विराट मशकें
साँसों की धमन भट्टी से दहकाए शब्द
क्या वे कभी जान पाएँगे कब जान पाएँगे
कि उनका भी घर है भाषा के भीतर!!