गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

कभी विराट सृष्टि थी

एक उम्र आती है जब उन आत्‍मीय और जीवन में नायक रहे अग्रज लोगों, मित्रों, रिश्‍तेदारों की बीमारियों या उनके अवसान की खबरें अनायास आने लगती हैं। जीवन इस तरह अपनी उम्रदराजी का पता भी देता है और चाहे-अनचाहे नॉस्‍टेल्जिक भी करता है। 

पिछले सप्‍ताह मेरे तीन मामाजियों में से मँझले लेकिन अब आखिरी बचे हुए भी काल कलवित हो गए। मुझे लगातार अपनी एक बीस साल पुरानी कविता, जो थी तो बड़े मामा पर लेकिन उसमें ये मामाजी भी कहीं न कहीं ध्‍वनित थे, याद आती रही। 

तो इस एक व्‍यक्तिगत सी पोस्‍ट में वह कविता यहॉं लगा रहा हूं। खुद को ही सांत्‍वना देता हुआ। अपनी किशोरावस्‍था के  भरे-पूरे, रोशन सुनसान में चलता हुआ। अपनी स्‍मृति को सार्वजनिक करता हुआ।

बड़े मामा का मुँह

इस बार बड़े मामा मिले तो गायब थे उनके सारे दॉंत
वे दो दॉंत भी जिनमें थीं सोने की कीलें
जो चमकती थीं उनकी बातचीत में
उन्‍हें देखते ही समझा जा सकता था कि पिछले कुछ वर्षों ने
निकाल ली हैं उनके जीवन की सारी चमकदार कीलें
एक बत्‍तीसी भरे जीवन में से अब
बचा हुआ था बस उनका पोपला मुँह

कभी विराट सृष्टि थी उस मुँह में

वहॉं भरे हुए थनों की गायों का झुण्‍ड था
चमकदार सींगों के बैल जोत रहे थे मध्‍य भारत के खेत
विशाल बाखर थी जहॉं रोशनी और आवाजें कभी खत्‍म नहीं होती थीं
एक दहाड़ थी जो सुनाई देती थी आसपास के गॉंवों तक
वहीं आल्‍हा का वीर रस था
और भरत मिलाप का करुण संसार

उन्‍नीस सौ चवालीस का हैजा था
और सन चौवन का टिड्डी दल
खुरों की बीमारी का असहाय शोक था
मामी की घिसटती हुई लंबी उबाऊ मृत्‍यु थी
और नानी का निर्विकार जीवन जो बार-बार
धँसा जाता था मोह-माया के पंक में

मामा के मुँह में था इतना सब कुछ
मगर इस बार जब मामा मिले
तो गायब थे उनके सारे दॉंत और मुँह था पोपला।
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3 टिप्‍पणियां:

ravindra vyas ने कहा…

pahle bhi pasand aai thi!

शरद कोकास ने कहा…

बहुत कुछ याद दिलाती है यह कविता .. कुछ इसी तरह हम अपने आप को भी उस आने वाले यथार्थ के लिए तैयार करते हैं ।

शरद कोकास ने कहा…

अच्छी कविता